गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

सद्ग्रंथों में सेवा विधिशास्त्र

साहित्य एवं विधि दोनों ही समाज की इच्छा की अभिव्यक्ति हैं इस कड़ी में प्रस्तुत हैं सद्ग्रंथों से कुछ उद्धरण जो सेवा विधिशास्त्र के मूलभूत सिद्धांतों को इंगित करते हैं :
() वाल्मीकीय रामायण :
कारयित्वा महत् कर्म भर्ता भ्रित्यमनर्थकम
अधर्मो योअस्य सोअस्यास्तु यस्यार्योअनुमते गतः ॥२३॥

राजस्त्री बालवृद्धानाम वधे यत् पापमुच्यते
भृत्य त्यागे यत् पापं तत् पापं प्रतिपद्यताम ॥३७॥ (अयोध्याकाण्ड, ७५/२३, ३७)
उक्त दोनों कथन भरत जी के हैं जो उन्होंने श्री राम के वनवास के सम्बन्ध में कैकेयी से अपनी सहमति होने की सफाई देते हुए कोशल्या के समक्ष कहा। पहले श्लोक में उन्होंने कहा कि यदि श्री राम को वन में भेजने में मेरी सम्मति हो तो मुझे वही पाप लगे जो सेवक से कठिन काम कराकर उसे समुचित वेतन देने वाले स्वामी को लगता है। दूसरे श्लोक में उन्होंने सेवक के निष्कासन को पञ्च महापातकों में से एक बताते हुए कहा कि यदि श्रीराम को वन भेजने में कैकेयी से मेरी सम्मति हो तो मुझे वही पाप लगे जो राजा , स्त्री , बालक एवं वृद्ध का वध करने तथा सेवक को त्याग देने में होता है।

भरत जी को चित्रकूट में नीति निर्देश देते हुए श्रीराम ने सेवकों को समय से वेतन देने के महत्व को बताते हुए कहा:
क्वचिद् बलस्य भक्तं वेतनं यथोचितं
सम्प्राप्तकालम दातव्यं ददासि विलम्बसे ३२॥
कालातिक्रमे ह्येव भक्त वेतनयोर्भ्रिता:
भर्तुरप्यतिकुप्प्यन्ति सोअनर्थ: सुमहान कृत: ॥३३॥ (वही, १००/३२,)










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