गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

सद्ग्रंथों में सेवा विधिशास्त्र -२

शुक्रनीति:

नियुक्ति/सेवा का आदेश या आग्रह लिखित ही होना चाहिए



न कार्यं भृतक: कुर्यान्न्रिपलेखाद्विना क्वचित् ।
नाग्यापयेल्लेखनेन विनाल्पं वा महन्न्रिपः ॥ ***॥

भ्रान्ते: पुरूष धर्म्मत्वाल्लेख्यं निर्णायकम परम् ।
अलेख्यमाग्यापयति ह्यलेख्यं यत् करोति य: ।
राजक्रित्यमुभौ चौरौ तौ भृत्यनृपति सदा ॥***॥

नृप संचिन्हितम लेख्यं न्रिपस्तन्न नृपो नृप:॥ ***॥

समुद्रलिखितम राज्ञा लेख्यं तच्चोत्तमोत्तमम ।
उत्तमं राजलिखितम मध्यं मन्त्र्यादिभि: कृतम्।
पौरलेख्यंकनिष्ठं स्यात् सर्वं संसाधनक्षमं ॥ ***॥
वर्तमान सन्दर्भ में भावार्थ :
राजा ( समुचित प्राधिकारी / उच्चाधिकारी ) के लिखित आदेश के बिना किसी भी कर्मचारी को कोई काम नहीं करना चाहिएराजा भी लिखित आदेश दिए बिना किसी कर्मचारी से कोई छोटा या बड़ा काम करने को कहे
भूल भ्रम मनुष्य का स्वभाव है; भ्रम हो इसके लिए लेख बहुत बड़ा प्रमाण होता हैअत: जो राजा तथा जो सेवक बिना लिखित राजाज्ञा के ही राजकार्य करता है - वे दोनों राजा और कर्मचारी चोर हैं
राजा की मुहर लगा आदेशपत्र ही असली राजा है। केवल राजा ही राजा नहीं होता।
राजा की मुहर लगी राजाज्ञा सर्वोत्तम होती है । मुहर रहित राजा के हस्ताक्षरयुक्त राजनिदेश उत्तम हैं। मंत्रियों का आदेश मध्यम कोटि का है। अन्य अधीनस्थ अधिकारियों का आदेश निम्न कोटि का होता है।

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